Saturday, May 13, 2006

हाय न मैं लेखक कहलाया

आँखों पर चश्मा चढ़वाया
पैजामा कुरता सिलवाया
कन्धें पर झोला लटकाया
लेखक जैसा भेष बनाया
तब भी न मैं लेखक कहलाया

प्रेरणा स्त्रोत बमुश्किल पाया
पोथी पढ़ भेजा गर्माया
टकटकी बांधे ध्यान लगाया
मार के गोता मोती लाया
फिर भी न मैं लेखक कहलाया

लिख लिख कर अंबार लगाया
दमड़ी भर न दाम कमाया
मूढ़मति का तगमा पाया
व्यर्थ ही अपना समय गवांया
हाय न मैं लेखक कहलाया

कलम से पर था ब्याह रचाया
उसका साथ मैं छोड़ न पाया
सबसे अपना दर्द छुपाया
कागज़ पर आँसू टपकाया
हाय न मैं लेखक कहलाया

घिस पिट कर जब मुक्ति पाया
प्रहरी समय हरकत में आया
झोला खोला माल अँकवाया
यूँही न मैने नाम कमाया
मर कर ही लेखक कहलाया ।
मर कर ही प्रसिद्ध हो पाया ।।

6 comments:

रवि रतलामी said...

बढ़िया गप्प लड़ाई है.

बस अब लगातार साल के 365 दिन गप्प लड़ाएँ यही कामना है.

Manish Kumar said...

भईया पहली गलती तो ये की कि भेष गलत चुना! :)
अब कुरते और झोले का जमाना कहाँ रहा ?

उन्मुक्त said...

सुन्दर

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया लिखा है!

गप्पी said...

धन्यवाद ।

Udan Tashtari said...

अच्छा है.

समीर