पड़ी जो उन पर इक नज़र
हम ठगे देखते रह गए
किसी चिंतन में बह गए
दिल में उठे ख्यालों को
बरबस आँखों से कह गए
पैगाम हमारा उधर गया
पर इच्छा हुई न पूरी
रह गई आस अधूरी
आखिर कैसे मन की पाते
हाय ,उमर की थी मजबूरी
नाइन्साफ़ी किस कद़र
रंगत पड़ी है पीली
खाल हुई कुछ ढीली
तन से हम क्यों गए बुढ़ाह
जब तबियत अभी रंगीली ।।
Friday, May 12, 2006
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