आँखों पर चश्मा चढ़वाया
पैजामा कुरता सिलवाया
कन्धें पर झोला लटकाया
लेखक जैसा भेष बनाया
तब भी न मैं लेखक कहलाया
प्रेरणा स्त्रोत बमुश्किल पाया
पोथी पढ़ भेजा गर्माया
टकटकी बांधे ध्यान लगाया
मार के गोता मोती लाया
फिर भी न मैं लेखक कहलाया
लिख लिख कर अंबार लगाया
दमड़ी भर न दाम कमाया
मूढ़मति का तगमा पाया
व्यर्थ ही अपना समय गवांया
हाय न मैं लेखक कहलाया
कलम से पर था ब्याह रचाया
उसका साथ मैं छोड़ न पाया
सबसे अपना दर्द छुपाया
कागज़ पर आँसू टपकाया
हाय न मैं लेखक कहलाया
घिस पिट कर जब मुक्ति पाया
प्रहरी समय हरकत में आया
झोला खोला माल अँकवाया
यूँही न मैने नाम कमाया
मर कर ही लेखक कहलाया ।
मर कर ही प्रसिद्ध हो पाया ।।
Saturday, May 13, 2006
Subscribe to:
Posts (Atom)