Thursday, May 18, 2006

विजय भाई को शादी की भेंट

विजय भाई की शादी हो गई। सबने बधाई भी दे दी । हम बड़े पशोपेश में थे कि भई
कुछ कहें या चुप लगाएं । सोच विचार के बाद इस नतीजे पर पहुँचे कि माना नई
मुलाकात है पर बधाीई तो बनती ही है । फिर सोचा कि बधाई के सगं ई-लिफाफा
भी भेज दें तो शायद ज्यादा याद रखेंगे । रूपये उनके लिए बेकार है और डालर
अपने पास है नहीं । इसलिए उनके फोरसड बैचलरहुड के गम को कम करने के
लिए यह रचना भेज रहे है। -------

शादी का नगाड़ा जो किसी ने बजाया
एक अदद टट्टू की घोड़ी को सजाया
बेसाख्ता ही मुझको वो समय याद आया
शादी की बलिवेदी जब गया मैं बिठाया

पत्नी पाई फूल सी तो मैं हुया निहाल
झपकते पलक बीत गया पहला सुखद साल
अगामी दिनों ने किया पर वो हाल
हो गई आड़ी तिरछी मेरी सीधी साधी चाल

फूल के फूल हुय़ा गोभी का फूल
मेरे सारे खर्चे उसे लगने लगे फिज़ूल
उसने कर ली जेब से चवन्नी तक वसूल
दोस्तों की महफिलें हाय गया मैं भूल

देर से अक्सर मैं दफ़तर को जाता
रोज़ सुबह बोस की फटकार खाता
बीवी और माँ का मुकद्दमा निपटता
रात भर जाग कर मुन्ने को टहलाता

कलास दर कलास बच्चे चढ़ते गए
परवरिश में खर्चे उनके बड़ते गए
चँदिया के बाल सारे झड़ते गए
करनी थी अपनी तो भरते गए

काश मालिक सेब का पौधा न बोता
ईव को देख एडम आपा न खोता
किस्सा हुस्नो-इश्क का अगर ये न होता
मस्त कहीं मैं भी चैन की नींद सोता ।।