हर इन्सान स्वयं को समझता है बुद्धिमान
चाहे कोई अन्य उसे दे न यह सम्मान
कुछ ऐसे ही विचार अपने बारे में
हम रखते थे
और इस खुशफहमी में
कभी तुकबन्दी
कभी कविता करते थे
अपनी अक्ल दूजों को भी
क्यों न जाए दिखाई
यह सोचकर मंच पर
हमने अपनी कविता सुनाई ।
"किस से है लिखवाई ?"
इक महिला थी चिल्लाई
"है कहाँ से चुराई ?"
किसी ने आवाज़ लगाई
पाकर ये प्रशंसा
हमें इतनी शर्म आई
कि मंच छोड़ने में
समझी हमने भलाई
आइने से पूछते है
अब जब भी
उसमें तकते है
क्या सच में इतने बुद्धू
हम शक्ल से लगते है ।।???
आइना झूठ नहीं बोलता ,शायद तभी कुछ कहने से डर रहा है
और हम अपना फोटू ब्लाग पर चिपकाने से । वरना हम कोई
ऋितक रोशन से कम थोड़े ही है वो तो उसे राकेश रोशन
जैसे पिता श्री मिल गए तभी इतना हिट हो गया । अगले
जन्म मे अपना मामला भी फिट है। आखिर टोना टोटका जो कर रहे है ।
Sunday, May 21, 2006
Thursday, May 18, 2006
विजय भाई को शादी की भेंट
विजय भाई की शादी हो गई। सबने बधाई भी दे दी । हम बड़े पशोपेश में थे कि भई
कुछ कहें या चुप लगाएं । सोच विचार के बाद इस नतीजे पर पहुँचे कि माना नई
मुलाकात है पर बधाीई तो बनती ही है । फिर सोचा कि बधाई के सगं ई-लिफाफा
भी भेज दें तो शायद ज्यादा याद रखेंगे । रूपये उनके लिए बेकार है और डालर
अपने पास है नहीं । इसलिए उनके फोरसड बैचलरहुड के गम को कम करने के
लिए यह रचना भेज रहे है। -------
शादी का नगाड़ा जो किसी ने बजाया
एक अदद टट्टू की घोड़ी को सजाया
बेसाख्ता ही मुझको वो समय याद आया
शादी की बलिवेदी जब गया मैं बिठाया
पत्नी पाई फूल सी तो मैं हुया निहाल
झपकते पलक बीत गया पहला सुखद साल
अगामी दिनों ने किया पर वो हाल
हो गई आड़ी तिरछी मेरी सीधी साधी चाल
फूल के फूल हुय़ा गोभी का फूल
मेरे सारे खर्चे उसे लगने लगे फिज़ूल
उसने कर ली जेब से चवन्नी तक वसूल
दोस्तों की महफिलें हाय गया मैं भूल
देर से अक्सर मैं दफ़तर को जाता
रोज़ सुबह बोस की फटकार खाता
बीवी और माँ का मुकद्दमा निपटता
रात भर जाग कर मुन्ने को टहलाता
कलास दर कलास बच्चे चढ़ते गए
परवरिश में खर्चे उनके बड़ते गए
चँदिया के बाल सारे झड़ते गए
करनी थी अपनी तो भरते गए
काश मालिक सेब का पौधा न बोता
ईव को देख एडम आपा न खोता
किस्सा हुस्नो-इश्क का अगर ये न होता
मस्त कहीं मैं भी चैन की नींद सोता ।।
कुछ कहें या चुप लगाएं । सोच विचार के बाद इस नतीजे पर पहुँचे कि माना नई
मुलाकात है पर बधाीई तो बनती ही है । फिर सोचा कि बधाई के सगं ई-लिफाफा
भी भेज दें तो शायद ज्यादा याद रखेंगे । रूपये उनके लिए बेकार है और डालर
अपने पास है नहीं । इसलिए उनके फोरसड बैचलरहुड के गम को कम करने के
लिए यह रचना भेज रहे है। -------
शादी का नगाड़ा जो किसी ने बजाया
एक अदद टट्टू की घोड़ी को सजाया
बेसाख्ता ही मुझको वो समय याद आया
शादी की बलिवेदी जब गया मैं बिठाया
पत्नी पाई फूल सी तो मैं हुया निहाल
झपकते पलक बीत गया पहला सुखद साल
अगामी दिनों ने किया पर वो हाल
हो गई आड़ी तिरछी मेरी सीधी साधी चाल
फूल के फूल हुय़ा गोभी का फूल
मेरे सारे खर्चे उसे लगने लगे फिज़ूल
उसने कर ली जेब से चवन्नी तक वसूल
दोस्तों की महफिलें हाय गया मैं भूल
देर से अक्सर मैं दफ़तर को जाता
रोज़ सुबह बोस की फटकार खाता
बीवी और माँ का मुकद्दमा निपटता
रात भर जाग कर मुन्ने को टहलाता
कलास दर कलास बच्चे चढ़ते गए
परवरिश में खर्चे उनके बड़ते गए
चँदिया के बाल सारे झड़ते गए
करनी थी अपनी तो भरते गए
काश मालिक सेब का पौधा न बोता
ईव को देख एडम आपा न खोता
किस्सा हुस्नो-इश्क का अगर ये न होता
मस्त कहीं मैं भी चैन की नींद सोता ।।
Saturday, May 13, 2006
हाय न मैं लेखक कहलाया
आँखों पर चश्मा चढ़वाया
पैजामा कुरता सिलवाया
कन्धें पर झोला लटकाया
लेखक जैसा भेष बनाया
तब भी न मैं लेखक कहलाया
प्रेरणा स्त्रोत बमुश्किल पाया
पोथी पढ़ भेजा गर्माया
टकटकी बांधे ध्यान लगाया
मार के गोता मोती लाया
फिर भी न मैं लेखक कहलाया
लिख लिख कर अंबार लगाया
दमड़ी भर न दाम कमाया
मूढ़मति का तगमा पाया
व्यर्थ ही अपना समय गवांया
हाय न मैं लेखक कहलाया
कलम से पर था ब्याह रचाया
उसका साथ मैं छोड़ न पाया
सबसे अपना दर्द छुपाया
कागज़ पर आँसू टपकाया
हाय न मैं लेखक कहलाया
घिस पिट कर जब मुक्ति पाया
प्रहरी समय हरकत में आया
झोला खोला माल अँकवाया
यूँही न मैने नाम कमाया
मर कर ही लेखक कहलाया ।
मर कर ही प्रसिद्ध हो पाया ।।
पैजामा कुरता सिलवाया
कन्धें पर झोला लटकाया
लेखक जैसा भेष बनाया
तब भी न मैं लेखक कहलाया
प्रेरणा स्त्रोत बमुश्किल पाया
पोथी पढ़ भेजा गर्माया
टकटकी बांधे ध्यान लगाया
मार के गोता मोती लाया
फिर भी न मैं लेखक कहलाया
लिख लिख कर अंबार लगाया
दमड़ी भर न दाम कमाया
मूढ़मति का तगमा पाया
व्यर्थ ही अपना समय गवांया
हाय न मैं लेखक कहलाया
कलम से पर था ब्याह रचाया
उसका साथ मैं छोड़ न पाया
सबसे अपना दर्द छुपाया
कागज़ पर आँसू टपकाया
हाय न मैं लेखक कहलाया
घिस पिट कर जब मुक्ति पाया
प्रहरी समय हरकत में आया
झोला खोला माल अँकवाया
यूँही न मैने नाम कमाया
मर कर ही लेखक कहलाया ।
मर कर ही प्रसिद्ध हो पाया ।।
Friday, May 12, 2006
तबियत अभी रंगीली
पड़ी जो उन पर इक नज़र
हम ठगे देखते रह गए
किसी चिंतन में बह गए
दिल में उठे ख्यालों को
बरबस आँखों से कह गए
पैगाम हमारा उधर गया
पर इच्छा हुई न पूरी
रह गई आस अधूरी
आखिर कैसे मन की पाते
हाय ,उमर की थी मजबूरी
नाइन्साफ़ी किस कद़र
रंगत पड़ी है पीली
खाल हुई कुछ ढीली
तन से हम क्यों गए बुढ़ाह
जब तबियत अभी रंगीली ।।
हम ठगे देखते रह गए
किसी चिंतन में बह गए
दिल में उठे ख्यालों को
बरबस आँखों से कह गए
पैगाम हमारा उधर गया
पर इच्छा हुई न पूरी
रह गई आस अधूरी
आखिर कैसे मन की पाते
हाय ,उमर की थी मजबूरी
नाइन्साफ़ी किस कद़र
रंगत पड़ी है पीली
खाल हुई कुछ ढीली
तन से हम क्यों गए बुढ़ाह
जब तबियत अभी रंगीली ।।
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